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शब्दार्थ+अ० अनगार ब. बहुत वे. वेदना से अ० पराभव होते दो दूसरी वक स० श्रमण निग्रंथ को स०१ .
बोलाकर ए. ऐसा 40 वोले म मेरा दे देवानुप्रिय से० शय्या कि क्या क०की क०करते हो त तब स012 श्रमण नि. निग्रंथ तं. उस ज. जमाली अ० अनगार को एक ऐसा व० बोले णो नहीं देदेवानुप्रिय से शय्या क. की क० करते हैं ॥८॥त. नब तक उस ज जमाली अ० अनगार को अ. ऐसा अ० चितवन जा. यावत् स० उत्पन्न हुवा स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ए० ऐमा आ०
वेदणाए अभिभूए समाणे दोच्चंपि समणे णिग्गंथे सदावेइ२त्ता एवं वयासीममंणं देवाणुप्पिया , सेज्जासंथारए किं कडे कजइ?तएणं समणा णिग्गंथा तंजमालिं अणगारं एवं वयासीणो खलु दवाणुप्पियाणं सेज्जासंथारए कडे,कजइ॥८१॥तएणं तस्स जमालिस्सअणगारस्स अयमे
यारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पजित्था, जंणं समणे भगवं महावीरे एवं माइक्खइ । भावार्थ
E अनगार का ऐसा अर्थ विनय पूर्वक सुनकर जमाळी अनगार का संथारा बिछाने लगे ॥ ८० ॥ जमाली,
अनगारने बहुत वेदना से पीडित होने से दुमरी, नीसरीवार श्रमण निग्रंथ को बोला कर कहा कि अहो,
देषानुप्रिय ! क्या मेरा मंथारा किया या करते हैं ! तब श्रमण निग्रंथ जमाली अनगार को ऐसा बोले ॐ कि अहो देवानुभिय ! आप का शैय्यासंथारा किया नहीं करते हैं ॥ ८१॥ ता जमाली अनगारको
मा अध्यवसाय उत्पन हुना कि जो श्रमग भगवंत महावीर स्वामी ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि '
48 पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती ) मूब 488+
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नवना शतक का तेत्तीसवा