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शब्दार्थ कहते हैं जा. यावत् ए. ऐसा ५० प्ररूपते हैं च• चलते को च० चला उ. उदीरते को १० उदीरा*
जा. यावत णि निर्जरते को णि निर्जरात वह मि० मिथ्या इ० यह प. प्रत्यक्ष दी० दीखता है। से० शय्या क० करते अ० नहीं की सं० बीछाते अ. नहीं बिछाया त• इसलिये च० चलते अ. नहीं चला जा' यावत् णि निर्जरते अ० नहीं निर्जरा एक ऐसा सं० विचारकर स० श्रमण नि० निग्रंथ को स० बोलाकर ए० एमा २० बोले दे० देवानुप्रिय स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ए. ऐसा आ०
जाब एवं परूवेइ, एवं खलु चलमाणे चलिए उदीरिजमाणे उदीरिए जाव अ
णिजरिज्जमाणे णिजिण्णे तण्णं मिच्छा, इमंचणं पच्चक्ख मेव दीसइ, सेजासंथारए है कजमाणे अकडे. संथरिजमाणे असंथरिए, जम्हाणं सज्जा संथारए कजमाणे अकडे
संथरिजमाणे अथरिए, तम्हा चलमाणेवि अचलिए जाव णिज्जरिज्जमाणेवि अणि
जिण्णे एवं संपेहइ २ ता; समणे णिग्गंथे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी जंणं देवाभावार्थ चलते हुवे चला उदीरते हुवे उदीरा यावत् निर्जरते हुवे निर्जरा पर मिथ्या है. क्यों कि यह प्रयक्ष दीख
रहा है कि शैय्या संथाग करत हुवे नहीं किया संघरते हुवे नहीं. संथारा. जिस से सथारा करते हुवे में नहीं किया संथरत हुवे नहीं संथरा. इसलिये चले हुवे नहीं चल यावत् निर्जरे हुवे नहीं निर्जरे ऐसा रविचार कर श्रमण निग्रंथ को चोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! जो श्रमण भगवंत महावीर
4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *