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42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी+
चारमे ॥ सिय अचरिमे पुहत्तेणं चरिमोवि अचरिमोवि ॥ ३२ ॥ संजओ जीवो मणुस्सो जहा आहारओ, असंजओवि तहेव ॥ संजयासंजओवि तहेव, णवरं जस्स जं अत्थि॥णोसंजया णोअसंजया णोसंजया संजया, जहा णोभविसिद्धीय णो अभवसिहीय ॥ ३३ ॥ सकसाई जाव लाभकसायी सम्बट्राणस जहा आहारओ । अक
सायी जीवपदे सिद्धपदेय णो चरिमो. अचरिमो. मणस्सपदे सिय चारमो सिय है अचरिमो, ॥ ३४ ॥ णःणी जहा सम्मट्टिी सव्वत्थ आणिबोहियणाणी जाव
मणपजवणाणी जहा आहारओ णवरं जस्स जं आत्थि, केवलणाणी जहा णो व विकलेन्द्रिय छोडकर स्यात् चरिम स्यात् अचरिम, अनेक आश्री चरिम व अचरिम दोनों हैं॥३२॥ संयति मनुष्य का आहारक जैने कहना. असंयति का भी आहारक जैने कहा, संयतासंयति का भी वैसे ही कहना. विशेष में जिसको जो हावे उस को वही कहना. नो यति नो असंयनि नो संयताई संयति का नो भवसिद्धिक नो अभवामिद्धिक जैसे कहता ॥ ३३ ॥ सपायी यावत् लोभ कषायो का मब स्थान आहारक जैसे कहना. अपायी का जीवपद व सिद्धपद में चरिम नहीं परंतु अचरिम कहना. मनुष्य पद में स्यात् चरिम स्यात् अचरिम कहना ॥ ३४ ॥ ज्ञानी का ममदृष्टि जैसे कहना आभिनियोधिक शानी यावत् मनापर्यव ज्ञानी का आहारक जैसे कहना विशेष में जिस को जो होवे सो कहना. केवल
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प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाममाजीद
भावार्थ