________________
शब्दार्थ पु० पृथ्वी काया उ० उत्पन्न होवे गं० गांगेय नो० नहीं सं० आंतरा सहित पु० पृथ्वीकाया उ० उत्पन्न
होवे नि० निरंतर उ० उत्पन्न होवे जा०यावत् वनस्पति काया बे० बेइन्द्रिय जायावत् वे वैमानिक ज० जैसे ने नारकी ॥१॥सं० आंतरा सहित भं. भगवन ने नारकी उ० उद्वर्ते नि निरंतर भ० भगवन नारकी उ० उद्रत गं० गांगेय सं• अंतर सहित ने नारकी उ० उद्वर्ते नि० निरंतर ने० नारकी उ० उद्वर्ते ए. ऐसे जा० यावत् २० स्थानित कुमार सं० अंतर महित भं• भगवन् पु० पृथ्वी काया उ.
एवं जाव वणस्सइ काइया ॥ बेइंदिया जाव वेमाणिया एते जहा नेरइया ॥ १ ॥ संतरं भंते ! णेरइया उव्वदंति, निरंतरं भंते ! णेरइया उव्वटंति ? गंगेया ! संतरंपि
रइया उव्वटंति, निरंतरपि गेरइया उब्वटंति । एवं जाव थणिय कुमारा ॥ संतर भंते ! पुढवीकाइया उव्वदंति पुच्छा ? गंगेया णो संतरं पुढवीकाइया उव्वदंति गांगेय ! अंतर सहित नहीं उत्पन्न होते हैं परंतु निरंतर उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही अप्काय यावत् वनस्पति काय का जानना. बेइन्द्रिय से वैमानिक तक का नारकी जैसे कहना ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! क्या
नारकी अंतर सहित उतते हैं (मरते हैं) या निरंतर उद्वर्तते हैं ? अहो गांगेय : अंतर सहित उर्तते , |" हैं और निरंतर भी उद्वर्तते हैं. ऐसे ही स्थनित कुमार तक अंतर सहित व निरंतर उदर्तते हैं. अहो ।
भगवन् ! क्या पृथ्वी कायिक जीव अंतर सहित उद्वर्तते हैं या निरंतर उद्वर्तते हैं ? अहो गांगेय ! निरंतर
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिती +
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी
भावाथ