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अनुर द :-बालब्रह्मवारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
केवलि पण्ण तं धम् लभेज सवणयाए, अत्थेगइए केवलि जाव नो लभेज सवणयाए जाव अत्थेगइए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए केवलनाणं नो उप्पाडेजा ॥ ११ ॥ सोच्चाणं भंते ! केवलिस्सवा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए ? गोयमा ! सोच्चाणं केवलिस्रावा जाव अत्यंगइए केवलि पण्णत्तं धम्मं एवं जाचेव असोच्चाए वत्तव्वया साचेव सोच्चाएवि भाणियव्वा, नवरं अभिलावो सोच्चत्ति मेसं तंचव, हिरवसेसं जाव जस्सणं मणपजव णाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्सणं केवल णाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट दश होवे. अहो गौतम ! इस कारन से ऐसा कहा गया है कि असोचा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपासिका के वचन स्रवण कर धर्म श्रवण करने का व केवल ज्ञानकी प्राप्ति का लाभ कितनेक को होवे और कितनेक को नहीं होवे. यह अमोचा केवली की वक्तव्यता कही ॥११॥ अब सांच्चा केवली का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! सोचा केरली के यावत् उन के पक्षवाले श्रावक श्राविका, उपासिका के वचन सुनकर केवली प्ररूपित धर्म मुन सके यावत् केवल ज्ञान प्राप्त कर सके ? अहो गौतम ! जैसे असोच्चा केवली की वक्तव्यता कही वैसे ही सोच्चा कवली की कहना परंतु विशेषता है।
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादनी ,
भावार्थ
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