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14 केवली प. प्ररूपित ध धर्म नि० सुना से• वही ध धर्म इ० इच्छा प० विशेष इच्छा ४० रुचि की
सु० अच्छा तु• तुम मु० सुदर्शन इ० अभी क० करते हो ते० इसलिये मु० सुदर्शन एक ऐसा वुः कहा जाता है अ० है ५० पभ्योपम मा० सागरोपम का ख० क्षय अ. अपचय ॥ ४१ ॥ त० तब तक उस स. सुदर्शन से श्रेष्टि स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर की अंपास ए. यह अ० अर्थ सोमुनकर णि अवधास्कर मु• शुभ अ० अध्यवसाय मे सु. शुभ प. परिणाम से ले० लेश्या भी मु० शद्ध करते __णिसंते, सेवियसे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए तं सुदृणं तुम्मं सुदंसणा!
इदाणिं विकराति. से तेणटेणं सुदंसणा! एवं बुच्चइ अस्थिणं एतेसिं पलिओवम . सागरोवमाइं खएइवा अवचएइवा ॥ ४१ ॥ तएणं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स ___समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमद्रं सोचा णिसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं
मुभेणं परिणामेणं लेस्सा विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं भावार्थही , तथारूप स्थविर की पास से केवली प्ररूपित धर्म तुमने मुना है। इस से तुम को ऐसा धर्म की इच्छा,
प्रतीच्छा, रुचि व अभिरुचि हुई है. और अद्यापि पर्यंत भी एसा धर्म करते हो. अब अहो सुदर्शन ! इसलिये ऐसा कहा गया है कि पल्योपम व सागरोपम का क्षय व अपचय होता है ॥ ४१ ॥ सुदर्शन च के श्रीपने श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से ऐसा अर्थ मुनकर अवधार कर शुभ अध्यवसाय व
अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी.
* प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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