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शब्दार्थ
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
वि० विविध वा व्याधिःम० शत का भं० स्थान अ० अस्थि क० काष्ट उ० रहा हुवा छि० नाडी व्हा. ७ स्नायु जा० जाल उ० वीटाहुवा. स० विशेष वीटाहुवा म० मृत्तिका के भं० वरतन जैसे दु. दुर्बल अ.
अशुचि सं० संक्लिष्ट अ० निवृत्ति रहित स० सर्व काल में सं० कृत्य करण ज० जरा कु. मांम ज० जर्जरीत घ० घर स० सडन प० पडन वि० विध्वंसन धर्म पु० पहिला प० पीछे अ० अवश्य वि. छोडना भ० होगा से वह के० कौन जा० जानता है अ० मातपिता के० कौन पु० पहिला . इस लिये जा
वाहिसयसंनिकेयं अद्वियकटुट्टिछिराण्हारुजालउवणद्धसपिणद्धं मटियभंडंव दुब्बलं असुइ संकिलिटुं आणिद्वविय सव्वकाल संटुप्पय जरा कुणिम जजरघरंव सडण पडण विद्धसण धम्मं पुचिवा पच्छावा अवस्सं विप्पजहियव्वं भविस्सइ, से केसणं जाणइ । पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि हुए पीछे दीक्षा अंगीकार करना यह सत्य है अन्यथा नहीं है परंतु अहो मातपिता ! मनुष्य का शरीर दुःख का गृह है, मेंकडों व्याधि का स्थानक, काष्ट पिंजर की तरह अनेक हड्डीयों की संधीवाला पिंजर है, नाडी व स्नायुजाल से वेष्टित है मिट्टी के भाजन समान शीघ्र फूट जानेवाला है, अशुचिका भंडार है, क्लिष्टता उत्पन्न करनेवाला है, सब प्रकार के अनिष्ट, मल, मूत्र स्वेद, श्लेष्म, कर्ण मेल आदि फूटे घडे की तरह झरते हैं मृत्यु की गंध सहित है जरा जीर्ण बनाती है, मडे समाने है, रोगादि से सडना, छेदनादि से पडना, विनाश पाने का ही इसका धर्म है. इस से पहिले या पीछे अवश्य
* प्रकाशक-रामाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ
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