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+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 48+
गमेणं अभि जाव पज्जुवासइ ॥ १४ ॥ मंडुयादि ! समणे भगवं महावीरे मंडुयं समणोवासयं एवं वयासी सुट्ठणं मंडुया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहुणं मंडुया ! तुम्हं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी जेणं मंडुया ! अटुंवा हेउवा |२३४९ पसिणंवा, वागरणंवा अण्णायं अदिटुं असुयं अमतं अविण्णातं बहुजणमझे आघवइ पण्णवेइ जाव उवदसेइ, सेणं अरिहंताणं आसादणयाए वटइ, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणयाए वटइ, केवलीणं आस दणयाए वट्टइ, केवलीपण्णत्तस्स धम्मस्स आसाहणयाए वइ, तं सुट्ठणं तुमं मंडुया ! ते अण्ण उत्थिए एवं वयासी, साहुणं तुम की पास आकर भगवंत महावीर की पांच प्रकार के अभिगम से मन्मुख जाकर यावत् पर्युपासना करने में लगा. ॥१४॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी मंडक श्रमणोपासक को ऐसा बोले कि अहो मंडक ! तुमने अन्यतीर्थिकों को जो ऐसा कहा वह अच्छा किया. अहो मंडुक ! जो बहुत मनुष्यों में नहीं देखा हुवा, न जाना हुवा व नहीं सुना हुवा अर्थ, हेतु,प्रश्न व व्याकरण को इस तरह कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं वे तीर्थंकर की आसातना करते हैं, अरिहंत प्ररूपित धर्म की आसातना करते हैं, केवली की आसातना करते हैं केवली प्ररूपित धर्म की आसातना करते हैं. इस से अहो मंडुक ! हैने उन अन्य तीथिकोंको ऐसा कहा सो
'अठारहवा शतक का सातवा उद्देशा
भवार्थ
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