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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
पारगयाइं रूवाइं ? हंता अत्थि, तुब्भेणं आउसो ! समुदस्स पारगयाई : रूवाइं पासह ? णो इणटे समटे ॥ अत्थिणं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाइं ? हंता अत्थि । तुब्भेणं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाइं पासह ? णो
२३४८ इणढे समढे ॥ एवामेव आउसो! अहंवा तुब्भेवा अण्णोवा छउमत्थो णजाणइ णपासइ, तं सव्वं ण भवसि. एवं भे सुवहुंलोए णभविस्सतीति कटु, ते अण्णउत्थिए एवं पडिहणति, एवं पडिहणतित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिकाय का रूप देखते हो ? यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो आयुष्मन् ! समुद्र के पारगत रूप हैं ? हां पंडुक ! हैं, तब क्या तुम उन को देखते हो ? यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो आयुष्मन् ! क्या देवलोक में गत रूप हैं ? हां मंडुक ! देवलोक गत रूप हैं. तब क्या उन देवलोक गत रूप को तुम देखते हो? यह अर्थ योग्य नहीं है. ऐसे ही अहो आयुष्मन् ! मैं, तुम अथवा अन्य छद्मस्थ जो जो वस्तु दिखने में नहीं आती है वह नहीं है ऐसा मानेंगे तो तुम्हारे मत में सुबहुलोक नहीं होगा. इस तरह अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की |
..प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
भावार्थ