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शब्दार्थ
विवाह पस्णत्ति (भगवती ) सूत्र 88
पूर्वदिशा के ज० देश के स• सर्वानुभूति अ० अनगार ५० प्रकृति भद्रिक जा. यावत् वि० विनीत ध० 21 धर्माचार्य के अ० अनुराग से ए• इस बात को अ० नहीं श्रद्धता उ० उठकर जे० जहां गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र ते. वहां उ० आकर गो. गोशाला में मंखलीपुत्र को ए. ऐसा व. बोला जे० कोइ गो० गोशाला त० तथारूप स. श्रमण मा० माहण की अं० पास से ए० एक भी आ० आर्य घ. धार्मिक सु० सुवचन णि• सुनता है से० वह भी तं० उसे वं० वंदता है . नमस्कार करता
उद्वेइत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी जेवि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं णिसामेइ सेवि ताव तं वंदइ णमंसइ ।
जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ ॥ किमंग पुण तुमं गोसाला ! भगवया त्रय के समकाल योग से तू नष्ट, भ्रष्ट हुवा है. अब मेरे से तुझे सुख नहीं है ॥ ९५ ॥ उस काल उस समय में पूर्व दिशा के देश का महावीर स्वामी का शिष्य प्रकृति भद्रिक यावत् विनीत सर्वानुभूति अनगार धर्म के अनुराग से इस अर्थ को नहीं श्रद्धता हुवा अपने स्थान से उठा, और जहां गोशाला था वहां गया. वहां जाकर उस को ऐसा बोला कि अहो गोशाला ! जो कोई तथारूप श्रमण माहण की पास से मात्र एक-आर्य धर्म के सुवचन अवधारते हैं वे भी उन को वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना करते हैं। ते
2800 पन्नरहवा शतक <988
भावार्थ
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