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भावार्थ
488+- पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 40
} की का० काय को स० प्रश करते चिः रहते हैं ॥ ४४ ॥ त० तब ते०वे ब० बलियंचा रा० राज्य धानी में व० रहने वाले ब० बहुत अ० असुर कुमार दे० देव दे० देवी ई० ईशान दे० देवेन्द्र को १० कुपित हुये जा० जानकर ई० ईशान दे० देवेन्द्र दि० दीव्य दे० देवऋद्धि दे० देवस्तुति दे० देवानुभाग (ते. तेजोलेश्या अ० नहीं सहते हुये स० स स० सबदिशा में स० प्रतिदिशा में ठि० रहकर क करके तल (द० दशनख सि० शिर्ष से आ आवर्तन म० मस्तक से अं० अंजलि क० करके ज० जयतिजय से व०
॥ ४४ ॥ तएणं ते बलिचचा रायहाणि वत्थन्ग बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय ईसाणं देविंद देवरायं परिकुवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविंदर देवरण्णो तंदिवं देवि दिव्वदेवजुन्तिं, दिव्वं देवाणुभागं, दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सच्चे सपर्किख सपडि दिसिं ठिच्चा करयल परिग्गहिदं दसनहं सिरसा वत्तं मत्थए अंजलिकट्टु जएणं विजण एणं
उस समय में बलिचंचा राज्यधानी में रहनेवाले असुर कुमार जाति के बहुत देव देवियोंने ईशानेन्द्र को कुपित जानकर उन की ऐसी दीव्य देवर्द्धि, देवद्युति, देवमहानुभाग, और दीव्य तेजोलेश्या नहीं सहन { करने से सब दिशी विदिशी में रहकर हस्तद्वय के दश नखों को एकत्रित कर मस्तक से आवर्तना करके जय विजय शब्द से बनाये और ऐसा बोले- अहो देवानुमिय ! आपको स
३ तीसरा शतक का पहिला उद्देशा
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