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शब्दार्थ
मुनि श्री अमोलक ऋपिजी.
ते. उस काल ते. उस समय में रा० राजगृह न नगर य० वर्णन युक्त गु० गुणशिल चे० चैत्य व० वर्णन युक्त जा. यावत् पु० पृथ्वीशिलापट्ट त० उस गु० गुणशिल चे० चैत्य की अ० नजदीक अ०
तहा आहारगंपितेयगंपि कम्मगंपि भाणियव्वं एकेके चत्तारि दंडगा भाणियव्वा जाव वेमाणि याणं भंते ! कम्मगसरीरेहिंतो कइकिरिया ? गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ अट्ठम सयस्स छट्ठो उद्देसो सम्मत्ते। ॥ ८ ॥ ६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे वण्णओ गुणसिलए चेइए वण्णओ,जाव पुढवी
सिलावट्टओ तस्सणं गुणसिलयस्सणं चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति वैक्रेय शरीर, बहुत जीव एक चक्रेय शरीर और बहुत जीव बहुत वैक्रेय शरीर ऐसे दंडक जानना. ऐसे ही आहारक तेजस व कार्माण का जानना. उदारिक शरीर सिवा अन्य चार शरीरों की घात नहीं हो सकबी है इससे इन में क्वचित् तीन व क्वचित् चार क्रियाओं लगती हैं. अहो भगवन् ! आपके बचन सत्य, हैं. यह आठवा शतक का छठा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ८॥ ६॥ .. . है छठे उद्दश में क्रिया का स्वरूप कहा. इस में भी प्रवेषिकी क्रिया के कारन भूत अन्यतीर्थको का विवाद कहते हैं. उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था. उस का वर्णन उववाइ मूत्र से जानना.
की ईशान कोन में गुणशील नामक उद्यान यावत् पृथ्वीशिलापट था. उस गुगशील
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावाथ