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शब्दार्थ देवानुपिय स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर जा. यावत् स० सर्वज्ञ स० सर्वदर्शी मा० माहण कुंडग्राम *
की ब० बाहीर व० बहुशाल चे० चैत्य में अ० यथारूप उ० उग्रह जा. यावत् वि. विचरते हैं ते. इससे से ए. ये व बहुत उ० उग्रवंशी भो भोगवंशी जायावत् अ० कितनेक वं०वंदन करनेको जायावत् नि० जाते हैं ॥ २३ ॥ त० तब ज० जमाली ख. क्षत्रिय कुमार के. कंचुकी पुरुष की अं० पास से ए. यह अर्थ सो० मूनकर णि अवधारकर ह० हृष्ट तुष्ट को. कौटुम्बिक पु० पुरुष को स० बोलाकर ए. ऐसा
समणे भगवं महावीरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी भाहण कुंडग्गामस्स णयरस्स बहिया बहुसालए चइए अहारूवं उग्गहं जाव विहरइ, तेशं एए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया वंदणवत्तियं जाव णिग्गच्छति ॥ २३ ॥ तएणं जमाली खत्तिय कुमारे कंचुइज पुरिसस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठतुढे कोडुंबिय पुरिसे
सद्दावेइ सहावेइत्ता, एवं वयासी खिप्पामेब भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं भावाथ
कुछ भी नहीं है परंतु आदेकर यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ब्राह्मण कुंड ग्राम नगरके बाहिर बहुशाल चैस में यथारूप अवग्रह याचकर विचर रहे हैं. उन के दर्शन के लिये उग्रपुत्र यावत् कितनेक
वंदना नमस्कार यारत् उपदेश सुननेको जारहे हैं।॥२३॥तब जमाली क्षत्रिय कुमारने कंचुकि पुरुषकी पास से ऐसा 18 अर्थ सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुए और कौटुम्बिक पुरुष को बोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवा
43 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
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* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *