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सत्र
शब्दार्थ * सातवीं पु० पृथ्वी एक ऐस लो. लोकान्त में ए..एकेक से सं० नोडना इ० इन ठा० स्थान से तं० वह ज.
जैसे उ.. आकाश का अंतर वा० सनुवात घ. घनोदधि पु. पृथ्वी दी०द्वीप सा० सागर वा क्षेत्र ने नारकी अ०.अस्तिकाय स० समय क० कर्म ले लेश्या दि० दृष्टि दं: दर्शन ना ज्ञान स० संघयण स. शरिर जोजोग उ० उपयोग द० द्रव्य प०प्रदेश प० पर्याय अकाल किं-क्या पु०पहिले लो लोकान्त पु० पहिले
यंतेय सत्तमेय तणुवाए, एवं घणवाए, घणोदहि सत्तमा पुढवी । एवं लोयंते एकण संजोएयव्वे इमेहिं ठाणेहिं तंजहा-उवासं वाय घणउदहि, पुढवी दीवाय सागरा वासा । नेरझ्यादी आत्थिय, समय कम्माई लेस्साओ ॥ १ ॥ दिट्ठी दसणणाणा, सम ।
सरीराय जोग उवओगे; दव्य पएसा पजव, अढा किं पुचि लोयंते ॥ २ ॥ पुट्विं क्रम रहित हैं. ऐसे ही लोक का अंत व सातवी नरक का तनुवात, लोक का अंत व सातवी नरक का घनवात. जानना ऐसे ही बनोदधि वगैरह लोकान्त की साथ जोडना जिन के नाम कहते हैं. १ आकाशा तर २ तनुपात ३ घनवात ४ घनोदाध ५ सातवी पृथ्वी ६ जम्बूदीपादि असंख्याते द्वीप ७ लवण समु
द्रादि असंख्याते समुद्र ८ भरत क्षेत्रादि वास ९ नारकी आदि चौवीस दंडक १० पंचास्ति काय ११. काल " विभाग १२ आठ कर्म १३ छ लेश्या १४ दृष्टि तीन १५ दर्शन चार १६ ज्ञान पांच १७ संघयण छ १८१ 13 शरीर पांच १०.योग तीन २० उपयोग दो २१ द्रव्य अनंत २२ प्रदेश अनंत २३ पर्याय अनंत २४१ *|
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी **
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*