________________
शब्द
११५४
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
मा० मानुषोत्तर प० पर्वत जे० जो चं० चंद्र मू० सूर्य ग. ग्रहण नक्षत्र ता० तारा ते० वे भं• भगवन् । दे०देव किं. क्या उ. ऊर्ध्व उ. उत्पन्न होनेवालेज जेसै जी० जीवाभिगम में त० तैसे निनिर्विशेष जा०, यावत् उ० उत्कृष्ट छ० छमास ॥ २१ ॥ ब० बाहिर भं० भगवन् मा० मानुषोत्तर प० पर्वत की ज० जैसे जी० जीवाभिगम में जा. यावत् ई० इंद्रस्थान भं० भगवन के० कितना काकाल वि. विरह उ० उपपात
माणुसुत्तर पव्वयस्स जे चंदिय सूरिय गहणखत्त तारारूवा तेणं भंते ! देवा किं उड्डविवण्णगा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा ॥२१॥ बहियाणं भंते ! माणुसुत्तर पव्वयस्स जहा जीवाभिगमे जाव इंदट्ठाणेणं भंते !
केवइयं कालं विरहिए उववाएणं ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासाका २१ भाग सूर्य तपे ॥ २० ॥ अब सूर्य की अपेक्षासे ज्योतिषी का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत में जो चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र व तारे रहे हुवे हैं वे क्या उर्धमें उत्पन्न होने वाले हैं वगैरह प्रश्न जीवाभिगम मूत्रमे जानना. अहो गौतम ! ज्योतिषी देव उर्ध्व में उत्पन्न होने वाले नहीं हैं कल्पोत्पन्न नहीं हैं परंतु विमानोत्पन्न हैं और चलने में आनंद मानते हैं यावतू इन्द्रस्थान का विरह उत्कृष्ट छमास का है। ॥ २१॥ अहो भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत के बाहिर रहे हुवे चंद्र सूर्य, ग्रह नक्षत्र व तारें क्या उर्व उत्पन्न हैं ! अहो गौतम ! उर्व उत्पन्न नहीं हैं कल्पोत्पन्न नहीं है, परंतु विमानोत्पन्न हैं यावत् इन में इन्द्रोप
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ
1