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तिणिवा, उक्कोसेणं अटूसयं ॥ पुचपडिवण्णए पडुच्च जहणेणं' कोडिपुहत्तं उक्को- - सेणवि कोडिपुहत्तं ॥ ३६ ॥ एएसिणं भंते ! पुलाग-वउस-पडिसेवणाकुसीलकसायकुसील-णियंठ-सिणाताणं कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा णियंठा पुलागा संखेजगुणा, सिणाया संखजगुणा, वउसा संखेजगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखजगुणा, कसायकुसीला संखेजगुणा ॥ ३७॥ सेवं भंते !
भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ पणवीसइम सयस्स छ8ो उद्देसो सम्मत्तो ॥२५॥६॥ न होवे यदि हावे तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट १०८ होवे पूर्व प्रतिपन्न आश्री जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक क्रोड ॥ ३६ ॥ अहो भगवन् ! इन पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना कुशील, कषाय कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडे निम्रन्य. क्यों कि प्रत्येक सो है. इस से पुलाक संख्यातगुने क्यों कि प्रत्येक सहस्र होवे, इस से स्नातक संरख्यात गुने क्यों कि प्रत्येक क्रोड होवे इस से बकुश संख्यातगुने क्यों कि प्रत्येक सो क्रोड होवे इस से प्रविसंवना कुशील संख्यातगुने, इस से कषाय कुशील संख्यातगुने ॥ ३७ ॥ अहो भगवन् ! आपने प्ररूपा सस है; यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे. यह पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा संपूर्ण हुवा॥२५॥६॥
488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मत्र
, 488+ पचीसवा शतक का छदा उदशा
भावार्थ
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