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जहा उप्पलुद्देसए; एवं वेदेति वेदणाएवि; उदएवि; उदारणाएवि ॥ ४॥ तेणं भंते! जीवा किं कण्हलेस्सा णील काउ छब्बीसं भंगा ॥ ५॥ दिट्ठी जाव वेइंदिया जहा उप्पलुद्देसए ॥६॥ तेणं भंते ! साली वीही गोधूम जाव जवजवग मूलगजीवे कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसणं असंखजं कालं । ॥ ७ ॥ तेणं भंते ! साली वीही गोधूम जाव जवजवग मूलग जीवे पुढवी जीवे पुणरवि साली वीही जात्र जवजवगमूलग जीवत्ति केवइयं कालं सेवेजा,
केवइयं कालं गतिरागति करेजा, एवं जहा उप्पलुईसए, एएणं अभिलावणं जाव भावार्थ परंतु बंधक है. ऐसे ही भानावरणीयादि कर्म वेदते हैं, उदय में आते हैं और उदीरते भी हैं ॥ ४ ॥ अहो
भगान् ! क्या वे जीव कृष्ण लेश्यावाले हैं, नील लेश्यावाले हैं या कापोत लेश्यावाले वगैरह के छवीस मांगे जानना ॥ ५ ॥ दृष्टे पेइन्द्रिय जैसे उत्पल उद्देशा जैसे कहना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! शालीव्रीहि,
गोधूम यावत् यव से मूल में वे जीवों कितना काल तक रहे? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट Lea असंख्यात काल ॥७॥ अहो भगवन् ! शाली वोहि, गेहूं यावत् जुवारी के जीव पृथ्वीकाया में उत्पन्न 1ोकर पुनः वाली मोहि यावत् जुबार के मूल में जीवपने किसना काल तक मेवे अर्थात् बीच का कितना
+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
488.2 इकवीसवा शतक का पहिला उद्देशा488