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सूत्र
भावार्थ
अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
मस्सजीवे ॥ आहारो जहा उप्पलुदेसे ठिती जहण्गेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं वास पुत्तं समुग्धायासमोहयाय मरंति उबट्टणाय जहा उप्पलुदेसे ॥ ८ ॥ अह भंते ! सव्य पाणी जाव सव्वसत्ता साली बीही जाव जवजवगमूलग जीवत्ताए उबवण्णपुत्रा ? हंता गोयमा ! अर्ति अदुवा अनंतखुत्तो ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ पढमं वग्गरस पढमो उद्देसो सम्मत्तो || १ || १ || अह भंते! साली वीही जात्र जवजवाणं एएसिणं जीवा कंदत्ताए वक्कमंति, तेणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति एवं कंदाहि गारेण सोचेत्र मूलुदेसो अरिसेसो भाणियन्त्रो जाव असतं अदुवा अगंतखुत्तो ॥ अंतर रहे और कितनी गति अगाति ढावें ? इस का जैसे उत्पल उद्देशा कहा वैसे कहना यावत् इन अभि लापसे यावत् मनुष्यपर्यंत करता. आहार का उत्तल उदेशे जैसे कहना. स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येक वर्ष ममाहया मरण मरते हैं उतना उत्पल उद्दशे जैसे कहना ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! सब प्राणभून जीव व सत्र शाली व्रीहि यावत् जुवारी के मूल में जीवने पहिले क्या उत्पन्न हुए ? ढां गौतम ! पहिले उत्पन्न हुए. अनेक वार व अनंतवार अढो भगवन्! आपके वचन सत्य हैं. प्रथम वर्ग का पहिला उद्देशा समाप्त हुवा || १ || १ || पहिलं उद्देशे में शाली व्रीहि यावत् जुवारी के मूल का कथन {किया वैसे ही शाली व्रीहि यावत् जुवारी तक के कंद में जो जीवों उत्पन्न हुए हैं वे मूत्र के जैसे ही आहार करते हैं इत्यादि सब प्रश्नचर मूल जैसे विशेषता रक्षित कहना. अशे भगवन्! आपके वचन सत्य हैं.
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी
viveva
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