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शब्दार्थ
सूत्र
१ इन्द्रिय से जाजाने पा० देखे णो नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ के० किसलिये जा० यावत् शेष पूर्ववत् ।
॥ २१ ॥ के. केवली भं० भगवन् अ० इस स० समय में जे० जिन आ० आकाश प० प्रदेश में ह• हस्त पा० पांव वा० बाहु उ० जंघा उ० अवगाह कर चि० रहते हैं प० समर्थ के. केवली से० आगामिक भी ___णो इणटे समटे । से केणटेणं जाव केवलीणं आयाणेहिं न जाणइ न पासइ ? गोयमा !
केवलीणं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ, अमियंपि जाणइ, जाव निव्वुड़े दंसणे केवलिस्स से तेण?णं ॥ २१ ॥ केवलीणं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपए
सेसु हत्थंवा, पार्थवा, बाहवा, ऊरुवा उग्गाहित्ताणं चिट्ठइ, पभूणं केवली सेयकालंसिवि
भगवन् ! क्या केवली आदान (ग्रहण करने योग्य सो इन्द्रियों ) से जानते हैं देखते हैं ? अहो गौतम ! भावार्थ
यह अर्थ योग्य नहीं है. किस कारन से केवली इन्द्रियों से नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं ? अहो गौतम !! केवली पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधो वगैरह दिशा में मर्यादा सहित जानते हैं और मर्यादा रहित भी जानते हैं, सब काल, सब भाव जानते देखते हैं. यावत् केवली को प्रगट ज्ञान दर्शन रहाहुवा
है इसलिये वे केवली इन्द्रियों से नहीं जानते व नहीं देखते हैं॥२१॥ अहो भगवन् ! इस समय में केवली जिन | आकाश प्रदेश में अपने हस्त, पांव, बाहु व जंघा अवगाहकर रहे हुवे हैं. उन ही आकाश प्रदेश में अना
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी *