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शब्दार्थ | केवली जा० यावत् पा= देखते हैं ॥ १९ ॥ अ० अनुत्तरोपपातिक भ० भगवन दे० देव किं० क्या उ०१ उदित मोहवाले उ० उपशान्त मोहवाले खी० क्षीणमोहवाले गो० गोनम नो० नहीं उ० उदितमोहवाले (उ० उपशांत मोहवाले णो० नहीं खी० क्षीणमोह वाले ॥ २० ॥ के० केवली भं० भगवन् आ० भवंति से तेणट्टेणं जण्णं इहगए केवली जाव पासइ ॥ १९ ॥ अणुत्तरोक्वाइयाणं भंते! देवा किं उदिष्णमोहा, उवसंतमोहा, खीणमोहा ? गोयमा नो उदिष्णमोहा, उबसंतमोहा, णो खीणमोहा ॥ २० ॥ केवलीणं भंते ! आयाणेहिं जाणइ पासइ ? ( अहो गौतम ! उन को अनंत मनोद्रव्य वर्गणा विशेषपनासे प्राप्त हुई है, सामान्यपना से प्राप्त हुई है, व सन्मुख हुई है. इसलिये अहो गौतम ! यहांपर कंवली जो अर्थ, हेतु कहते हैं उन को अनुत्तर कल्पवासी देव वहां रहे हुवे जान सकते हैं व देख सकते हैं * ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! अनुत्तर कल्पवासी देव [ क्या उदित [ उदय हुवा ] मोहवाले हैं, उपशान्त मोहवाले हैं, या क्षीण मोहवाले हैं ? अहो गौतम ! वे उदित मोहवाले नहीं हैं वैसे ही क्षीण मोहवाले नहीं है परंतु उपशांत मोहवाले हैं ॥ २० ॥ अहो * अनुत्तर कल्पवासी देवों का अवधिज्ञान संभिन्नलोकनाडीविषयवाला है. जो अवधिज्ञान लोक नाडी ग्राहक होता - है वह मनोद्रव्य वर्गणा का ग्राहक भी होता है. और भी मात्र लोक का संख्यात भागवाला अवधिज्ञान होता है वह भी ॐ मनोद्रव्यग्राही होता है, तो लोक नाडी विषयवाला अवधिज्ञान क्यों मनोद्रव्यग्राही न होवे ? अर्थात् मनोद्रव्य वर्गणा ग्राही होवे
सूत्र
भावार्थ
- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र
40 403 पांचवा शतक का चौथा उद्देशा - 808
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