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शब्दार्थ
अनुनादक-पालग्रह्मचारीमुनि श्री.अमोलक ऋषिजी,
गौवम उ. ऊर्ध्व प-गीरे अ अमे प० मोरे ति तिर्यक् पगारे॥१८॥ न जैसे से वह वा वादर आ. अपूकाय अ० अन्योन्य स० रहता चि. चिरकाल दी दीर्घकाल चि. स्टे तक तैसे से वह नो० नहीं 4 इ० यह अर्थ स० समर्थ से वह खि. शीघ वि. विध्वंस आ आता है से० ऐसे में भगवन्॥१॥६॥ १. ने नारकी भ० भगवन ने० नरकमें उ० उपजता किंक्या दे देशो दे०देश उ० उपजे दे०देश से स० सर्व उ० उपजे स० सर्व से दे० देश उ० उपजे स० सत्र से स०. सर्व उ. उपजे गो० गौतम नो० नहीं है
समाउत्ते चिरंपि दीहकालं चिट्ठइ, तहाणं सेवि ? णोइणटे सम? । सेणं खिप्पामेव वि.
समागच्छइ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति पढमे सए छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो ॥१॥६॥ नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववज्जमाणे किं देसेणं देसं उववजइ, देसेणं सव्वं उवव
जइ, सव्वेणं देसं उववज्जइ, सव्वेणं सब्ब उववजइ ? गोयमा ! नो देसेणं देसं उव भी बहुत काल तक टिकती है ? ओ गौतम : या अर्थ योग्य नहीं है क्यों की सूक्ष्म अफाय बहुत काल पर्यंत नहीं टिकती है. अल्प समय में नष्ट होती है. गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो भगवन ! आपका वचन सत्य है. अन्यथा नहीं है.. यह पहिले शतकका छठा उद्देशा पूर्ण हुवाः॥१॥६॥
छठे उद्देशे में विध्वंस की कथा कही अब सातवे उद्देशे में इमसे विपरीत उत्पन्न होने की वक्तव्यता करते
प्रकाशक-राजाबहादर लालामुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
भावार्थ
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