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शब्दार्थ के अवगाहे ह० हां उ० अवगाहे से० अथ त० तहां छि० छेदावे भि० भेदावे गो० गौतम अ० कितनेक :
छि० छेदावे भि० भेदावे अ० कितनेक नो० नहीं छि• छेदावे नो० नहीं भि० भेझवे एक ऐसे अ० अगि काय की म० मध्य में त. तहां झि० जले भा• कहना. ए० ऐसे पु० पुष्कल संवर्तक म. महामेघ की म० मध्य में त० वहां उ० द्रवित होना ए० ऐसे गं० गंगा में महानदी का प० प्रतिश्रोत इ० शीघ्र आ०
खंधे असिधारंवा खुरधारंवा. उग्गाहेजा ? हता उग्गाहेजा । सेणं तत्थ छिजेजवा ? गोयमा!अत्थेगइए छिज्जेजवा भिज्जेजवा, अत्यंगइएनोछिज्जेजवानोभिजेजवा भिजेजवा।। एवं अगणिकायस्स मज्झं मझेणं तहिं णवरं झियाएज भाणियन्वं एवं पुक्खलसंवदृस्स,
महामेहस्स मझं मझेणं तहिं उज्जोसिया, एवं गंगाए महाणईए पडिसायं हव्वमाभावार्थ जैसे एक परमाणु शस्त्र से छिन्न अभिन्न है वैसे ही द्वीप्रदेशी स्कंध यावत् संख्यात,
असंख्यात प्रदेशी स्कंध भी अछिन्न अभिन्न होते हैं. और अनंत प्रदेशात्मक स्कंध क्वचित् छेदाते भेदाते हैं और क्वचित् छेदाते भेदाते नहीं हैं. जैसे शस्त्र से छेदाते भेदाते का आलापक कहा वैसे ही आनिकाय में जलनेका जानना. अर्थात् कितनेक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध अग्निकाय में जलते हैं व कितनेक नहीं जलते हैं ऐसे ही पुष्कलावर्त महामेघ में कितनेक अनंत प्रदेशी स्कंध भीजते हैं और कितनेक नहीं भीजते ।
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी*