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8 पंचमांग विवाह परणसि (भगवती) सूत्र
॥ त्रयोविंशतितम शतकम् ॥ णमो सुअदेवयाए भगवईए ॥ आलुय लोहीअवए, पाठातह मास वाण्णवलीय; पंचते दस वग्गा, पण्णासं होति उद्देसा ॥१॥ रायगिहे जाव एवं वयासी अह भंते ! आलुय मूलग सिंगवेर हालिद्द रुरुक चरिय' जीरू छीर विराली किर्टिक दुकण्ण कडसु मधुएयलइ महुसिंगि णिरुहा रुप्प सुगंधा छिन्नरुहा वीयरुहाणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा बसंघग्ग सरिसा, णवरं परिमाणं जहणणं एक्कोवा दोवा तिाण्णवा उक्कोसेणं संखजावा असंखेजावा अणंतावा बाबीस वे शतक में प्रत्येक वनस्पतिका कथन किया, भव साधारण वनस्पति का कथन करते
पर प्रारंभ में श्रतदेवता को नमस्कार करने के लिये भगवती श्रत देवता को नमस्कार होवो. अब इस के वर्ग व उद्देशे कहते हैं. ? आलू मूलादि साधारण शरीर वनस्पति विशेष २ लोही प्रभृति अनंत 50 काय ३ अंबक प्रभृति अनंत काय४ पाढा प्रमुख और५ उडीद मुंगफली या पांच वर्ग. एकर वर्ग में दश २ उद्देशे होने से इस शतक में ५० उद्देशे होते हैं. राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसे प्रश्नों पुछने लगे कि अहो मगवन् ! आलू, मला,
*38* तेवीसवा शक्क का पहिला उद्देशा 98
भावाथ 1
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