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शब्दार्थ |
सूत्र
वार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी
(स० सम्यक प० अंगीकार करके मु० स्वप्न ल० लक्षण पा० पाठक को वि० विपुल अ० अशन पा० पान खा० खादिम सा० स्वादिम पु० पुष्प व वस्त्र गं० गंध अट अलंकार से स० सत्कारदेवे स० सन्मान देवे (वि० विपुल जी० आजीविका पी० प्रीतिदान द० देकर प० विसर्जन किये सी० सिंहासन से अ० उठकर {जे० जहां १० प्रभावती देवी ते० तहां उ० आकर प० प्रभावती दे० देवी को ता० उस इ० इष्ट जा० यावत् सं० बोलते ए० ऐसा व० बोले दे० देवानुप्रिय ति० तीर्थकर की मा० माता च० चक्रवती की मा० साइम पुप्फवत्थ गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता विउलं जीवियारिहं पीइदा दलय २ ता डिविसजेइ २ तासीहासणाओ अब्भुट्ठेइ २ ता जेणेत्र पभावई देवी तेणेव उवागच्छइ २त्ता पभावतिं देत्रिं ताहिं इट्ठाहिं जाव संलवमाणे २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा
पाठकों को अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला व अलंकार से सत्कार सन्मानादि | करके बहुत आजीविका योग्य प्रीतिकारी दान देकर विसर्जित किये और स्वयं प्रभावती देवी की पास आये. प्रभावती देवी को इष्टकारी, कांतकारी शब्दों से बोलाते हुवे ऐसा कहने लगे कि स्वप्न शास्त्र में बीयालीस सामान्य स्वप्न और तीस महास्वप्न ऐसे बहोत्तर स्वप्न कहे हैं. उन में से तीर्थकर व चक्रवर्ती
** प्रकाशक - राजा बहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *#
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