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सम्दार्थ
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488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 882
देवानुप्रिय प० प्रभावती दे० देवी सु. स्वप्न दि देखा जा० यावत् आ० आरोग्य तु० तुष्टि दी० दीर्घा
युष्यवाला क. कल्याणकारी जा. यावत् दि० देखा ॥२१॥ ततव मे० वह व बलराजा मु०स्वप्न लक्षण १७ पा० पाठक की अं० पास ए. इस अर्थ को सो• सुनकर णि अवधारकर १० हृष्ट क० करतल जा०
यावत् क० करके ते० उन स. स्वप्न लक्षण के पा० पाठक को एक ऐना व० बोला ए० एसे है। दे. देवानुप्रिय जा. यावत् ज० जैसे तु० तुम कः कहतेहो त्ति० एसा करकं तं० उन सु० स्वप्न को
जाव आरोग्ग तुहि दीहाउ कल्लाण जाव दि? ॥ २१ ॥ तएणं से बले राया सुविण लक्खण पाढगाणं अंतिए एयमढें सोचा णिसम्म हट्ट करयल जाव कटु ते सुविण लक्खण पाढगे एवं वयासी एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव सेजहेयं तुझे बदहात्तिकटु
तं सुविणं सम्मं पडिच्छइ २ त्ता, सुविण लक्खणपाढए विउलेणं असणपाण खाइम पुत्र होगा. पुत्र की बाल्यावस्था व्यतीत हुए पीछे सब राजाओं का राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार झेगा. इस से प्रभावतीने कल्याणकारी आरोग्य तुष्ट यावत् दीर्घायुष्यवाला स्वप्न देखा है ॥२१॥ फीर बलराना स्वप्न लक्षण पाठक की पास से ऐसा अर्थ सुनकर हृष्ट तुष्ट हुवे और हस्त जोडकर बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! तुमने जो कहा वह वैसे ही है. इस तरह स्वप्न इच्छकर सप्ज लक्षण
अग्यारसा शतकका अग्यारवा उद्देशा
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