________________
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
भावार्थ
गोयमा ! अविरतिं पडुच्च, से तेणट्रेणं जाव तदुभयाहिगरणीवि ॥ एवं जाव वेमाणिए ॥ ७ ॥ जीवाणं भंते ! अधिगरणं किं आयप्पओग णिव्वत्तिए, परप्पओग णिव्वत्तिए तदुभयप्पओग णिव्वत्तिए? गोयमा ! आयप्पओगणिव्वत्तिएवि, परप्पओगणिव्वत्तिएघि, तदुभयप्पओगणिव्वत्तिएवि ॥से केणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च,से तेण?णं जाव तदुभयप्पयोग णिव्वत्तिएविएवं जाववेमाणियाणं॥८॥कइणं भंते!
सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा! पंचसरीरगा पण्णता, तंजहा-ओरालिय जाव कम्मए ॥९॥ यावत् उभय के अधिकरणवाला जीव है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! जीव अधिकरण को अपने शरीर प्रयोग से बनाता है, अन्य के शरीर प्रयोग से बनाता है अथवा उभय के शरीर प्रयोग से बनाता है ? अहो गौतम ! अपने शरीर प्रयोग से बनाता है, पर के शरीर प्रयोग से बनाता है व उभय के शरीर प्रयोग से बनाता है, अहो भगवन ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि जीव आत्मप्रयोग से अधिकरण बनाता है यावत् उभयप्रयोगसे आधकरण बनाता है ?अहो गौतम! अविरति आश्री इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् उभय के शरीर प्रयोग मे अधिकरण बनाता है ऐसे ही वैमानिक पर्यंत चौबीम दंडक का जानना ॥ ८॥ अहो भगवन् ! शरीर कितने कहे ? अहो गौतम ! शरीर पांच कहे. जिन के नाम. ! उदारिक, २ वैक्रेय ३ आहारक ४ तेजस और ५ कार्माण ॥ ९ ॥ अहो भगवन् !
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
अनुवादक-बालब्रह्मच
4