________________
शब्दाथ
ऋषिजी 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक
पा. प्राण जा. यावत् स० सत्व को अ० दुःख नहीं देने से अ० शोच नहीं उपजाने से अ० झूरणा नहीं देने से अ० ताडन नहीं करने से अ० नहीं पीटने से अ० परितापना नहीं उपजानेसे ॥९॥ पूर्ववत् ॥१०॥
जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजति ॥ एवं नेरइयाणवि, जाव वेमाणियाणं ॥ ९ ॥ आत्थिणं भंते जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कजंति ? हंता अत्थि ॥ कहणं भंते ! जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कति ? गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजरणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरितावणयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए जाव परियावणगए, एवं खलु गोयमा!
जीवाणं असाया वेयणिज्जाकम्मा कजंति ॥ एवं नेरइयाणवि, जाव वेमाणियाणं साता वेदनीय कर्म करता है. ऐसे ही नारकी से वैमानिक पर्यंत चौवोस ही दंडक का जानना ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीव असाला वेदनीय कर्म करें? हां गौतम ! जीव असाता वेदनीय कर्म करे.. अहो भगवन् ! जीव असाता वेदनीय कर्म कैसे करे ? अहो गौतम ! अन्य को दुःख देने से, दैन्यपना करने से, शोक उत्पन्न करने से, शोक से अश्रु आदि गिराने से, ताडनादि करने से. व परिताप उत्पन्न करने से वैसे ही बहुत प्राण, भून, जीव व सत्वों को दुःख देने से यावत् परितापता उत्पन्न करने से जीव असाता वेदनीय कर्म करता है. ऐसे ही नारकी आदि चौवीसही दंडक का जानना ॥ १०॥ अहो भगवन् !
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ
|