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शब्दार्थ के सि शिथिल बं०बंधन व बंधीहुइ प० करे ज जैसे संसंवृति ण विशेष आ० आयुष्य क० कर्म सि० कदा-*
चित् ६० बांधे सिं० कदाचित् नो० नहीं बं० बांधे से शेष त० तैसे जा. यावन् वी० तीरे से० वह के०14 कैसे जा० यावत् वी० तीरे गो० गौतम फा० प्रामुक ए० शुद्ध भुं० भोगवता स० श्रमण नि० निग्रंथ
• आत्मा से ध० धर्म ना० अतिक्रमे नहीं आ० आत्मा से ध. धर्म अ. नहीं अ० अतिक्रमनेसे से
पु. पृथ्वी काया की अ० अनुकंपाकरे जा. यावत् त• त्रसकाया की अ० अनुकंपाकरे जे• जिस जी की | ओ पकरेइ जहा से संवुडेणं णवरं आउयंचणं कम्म सि बंधइ सिय नो बंधइ सेसं * है तहेव जाव वीईवयइ । सेकेणटेणं जाव वीईवयइ ? गोयमा ! फासुएसाणजे भुंज-
माणे समणे निग्गंथे आयाए धम्मं नाइक्कमइ, आयाए धम्मं अणइक्कममाणे पुढविकायं IF छोडकर अन्यसात कर्मों यदि दृढ बंधनवाले होवे तो शिथिल बंधनवाले बनावे और आयुष्य कर्म क्वचित् बांधे,
क्वचित् वांधे नहीं. उस में यदि आयुष्य कर्म का बंध करे तो वैमानिक देवता होवे और आयुष्य का बंध नहीं करे तो मुक्तिगामी जीव होवे. अहो भगवन् ! ऐसा किस तरह से होता है ? अहो गौतम !!go प्रासुक एषणिक आहार भोगनेवाला आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता है इस तरह उल्लंघन नहीं करता।
हुवा पृथ्वीकायादि षट्कायाकी अनुकम्पावाला होता है यावत् जिन जीवों के शरीर का आहार करता है, J उन जीवों की भी अनुकम्पावाला होता है. इस लिये अहो गौतम ! ऐसा कहा गया है कि प्रासुक एषणिक
498 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 43
84.83 पहिला शतक का नववा उद्देशा 87088
भावार्थ