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शब्दार्थ
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मुनि श्री अलक ऋपिजी दक-बालब्रह्मचारी
अनुकंपाकरे जे० मिन जी जीव के श० शरीर का आहार आ. करे ते. उन जी0 जीवों की नहीं। अ० अनुकंपाकरे से वह ते. इसलिये गो० गौतम एक ऐसा वु. कहा जाता है आ० आषाकर्मी भुं० भोगवता आ० आयुष्य व० वर्जकर स० सात क. कर्म प्रकृति जा. यावत् अ० परिभ्रमण करे ॥ १७॥ फा प्रामुक ए० शुद्ध भं. भगवन भुं०भोगवता किं क्या बं० बांधे जा. यावत् उ० उपचिने गो० गौतम फा० प्रास्क भं० भोगवता आ. आयुष्य वर्ज कर स० सात क. कर्म प्रकृति ध० दृढ वं. बंधन व० बंधी हुइ
सरीराइं आहारमाहारइ तावजाच नावकखइ, सतणण गोयमा ! एवं वुच्चइ, आहाकम्मण भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्म पगडीओ जाव अणुपरियदृइ॥१७॥फासुएसणिजं भंते ! भुंजमाणे किंबंधइ ? जाव उवचिणाइ ? गोयमा ! फासुएसणिज्जं
भुंजमाणे आउय बजाओ सत्त कम्मपगडीओ धणिय बंधन बद्धाओ सिढिल बंधण बद्धा वह आहार करता है उन जीवों की भी अनुकम्पा रहित होता है. इस लिये भहो गौतप: आधाकर्मी आहार भोगनेवाला आयुष्य कर्म छोडकर अन्य मात कर्मों का दृढ बंधन करता है यावत् चतुतिक संसार में परिभ्रमण करता है ॥ १७ ॥ प्रासुक एपणिक वस्तु भोगनेवाला श्रमण निग्रंथ किस का बंध करे यावत् क्या उपचिने ? अहो गौतम ! प्रामुक एषणिक वस्तु भोगनेवाला श्रमण निग्रंथ आयुष्य का
* प्रकाशक-राजावहादुर ला । मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ