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शब्दार्थ | + जीव के स० शरीर का आ० आहार करे ते० उन जी० जीवों को अं० अनुक्रपाकरे से ० वह ते० इसलिये {जा० यावत् बी० तीरे ॥ १८ ॥ से० वह मं० भगवन् अ० अस्थिर पर परिवर्तन होवे नो० नहीं थि० स्थिर ५० परिवर्तन होवे अ० अस्थिर भ० भेदावे नो० नहीं थि० स्थिर भ० भेदावे सा० शाश्वत बा०
सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अवकखइ जाव तसकायं अवकखइ, जेसिंपियणं जीवाणं सरीराई आहारइ तेवि जीवे अवकखइ, से तेणट्टेणं जाव वीईवयइ || १८ || सेणूणं भंते ! अथिरे पलोइ नोथिरे पलोहइ, अथिरे भज्जइ नो थिरे भज्जइ, सासए बालए बालियत्तं
{ आहार भोगनेवाला सात कर्मका शिथिल बंधन करता है और आयुष्य कर्म क्वचित बांधता है व क्वचित् नहीं बांधता है यावत संसार का व्यतिक्रम करता है ॥ १८ ॥ इस में संसार का उल्लंघन कहा वह संसार का { अस्थिरपना से हांवे इस लिये स्थिर अस्थिर का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या अस्थिर पदार्थ पटते हैं और पते है। अस्थिर का भेद होता है और स्थिर का
नहीं होता है ।
हां गौतम !
} बालक शाश्वत, बालक पना अशाश्वत, पंडित शाश्वत व पंडितपना क्या अशाश्वत है ! अस्थिर द्रव्य जो लोहादि उनका परावर्तन होता है, ( आध्यात्म चिन्तन में ) अस्थिर कर्म जीव प्रदेश समय २ में चले. स्थिर सो पत्थारादि चले नहीं आध्यात्म चिन्ता में जीव का उपयोग स्थिर तृणादि }
* प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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