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शब्दार्थ
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
॥ सप्तदशशतकम् ॥ कुंजर संजय सेलेसि किरिय ईसाणि पुढवि दग्गवाऊ॥ एगिदिय णाग सुवण्ण विजु. वातग्गे सत्तरमे ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी उदायीणं भंते ! हत्थिराया कओहिंतो अणंतरं उब्वटित्ता उदायी हस्थिरायत्ताए उबवण्णे ? गोयमा ! असुरकुमारेहितो
अणंतरं उबट्टित्ता उदायी हत्थिरायत्ताए उववण्णे ॥ १ ॥ उदायीणं भंते ! हत्थिराया सोलहवे शतक के अंत में भुवनपति देवों का कथन किया. इस शतक की आदि में भवनपति देव से नीकले हुए का स्वरूप कहते हैं. इस शतक के १७ उद्देशे कहे हैं जिन के नाम ? हस्ती २ संयति ३ शैलेशी ४ क्रिया ५ ईशान ६-७ पृथ्वी के ८-१ पानी क १०.११ वायुक१२एकेन्द्रिय १३ नाग कुमार १४१ सुवर्णकुमार १५ विद्युत्कुमार १६ वायु कुमार और १७ अग्निकुमार. यों सत्तरहवे शतक के सत्तरह उद्देशे कहे. हैं. राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर
गौतम स्वामी प्रश्न पुछने लगे कि अहो भगवन् ! सब हस्तियों में प्रधान ऐसा कोणिक राजा क
इ नामक हस्तिराजा कहां से अंतर रहित उद्वर्तकर उदायी हस्ति राजा पने उत्पन्न हवा ? अहो, गौतम ! असुरकुमार में से नीकलकर उदाइ नामक हस्ती राजा पने उत्पन्न हुवा. ॥१॥ अहो भगवन् !
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाजदि *
भावार्थ
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