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शब्दार्थ
१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलंक ऋषिजी
काल में उस समय में अं में गो० गौतम छ, छगस्थ अवस्था में ए० अपारह वर्षकी ५० दीक्षा से छ० छठ भक्तं अ० अंतर रहित व तपकर्म से सं संयम से . तप से अ आत्मा को मा०. मावा पु० अनुक्रम से चल चलता गा० ग्रामानुग्राम दू०जाला ने जहां सुसेसुमार पुरननगर जे जहाँ अ अशोक वनखंड उ. उद्यान.जे. जहां अ. अशोक वृक्ष जे. जहाँ पु. पृथ्वी शिलापट उ.. पाकर अ. अशोक वृक्ष की हे . नीचे पु० पृथ्वी शिलापट पे अ० अठम भक्त प० ग्रहणकर दी: दीपाव सा
तेणं कालेणं, तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालियाए एकारसवासरियाएं छटुं छट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे, पुव्वाणपनि चरमाणे, गामाणुगामं दृइजमाणे, जेणेव सुंसुमार पुरे नगरे जेणेब असोयवणेसंडे
उजाणे जेणेव असोयवरपायवे जेणव पुढविसिलापट्टए तेणेव उवागच्छामि उबागवर्ष की साधु की पर्याय पालता हवा, निरंतर छठ के पारणे का तप कर्म व संयम में आत्मा को चिन्तवताई हुवा, पूर्वानुपूर्व चलता हुवा और ग्रामानुग्राम विचरता हुवा मैं सुंसुमारपुर नगर के अशोक वनखंड नामक उयान में अशोक वृक्ष की नीचे पृथ्वी शिलापट की पास आया. वहाँ आकर अशोक वृक्ष नीचे पृथ्वी शीला पटपर अम्म भक्त (तेला-) किया. दोनों पांव संहर कर (जिन मुद्रासे ) लम्बी बाहु करके एकही पुद्गल पर दृष्टिस्थापकर, अनिमेष दृष्टि रखकर थोडासा- मस्तक नमाकर यथास्थित मात्रों कोई
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काजाबहादुर लाला मुखदेवसहाय जी ज्वालापसाइजी
भावार्य