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शब्दाथ
* अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
नहीं नि० पाहुना भ० भव विस्तार णो नहीं प० क्षय हुवा सं० संसार जो नहीं प. क्षयहुवा सं०1। संमार वे वेदनीय नो० नहीं वो तूटा सं० संसार नोक नहीं वो तूटा सं० संसार वे० वेदनीय नो. नहीं नि० पूर्णबुवा आ० अर्थ नो० नहीं पूर्णहुवा अ० अर्ष कार्य पु० फीर इ. यहां ह० शीघ्र आ० आये ६० हां गो गौतम ५० प्रासुक भोजी नि० निग्रंय जा. यावत् पु० फीर इ० यहां ह० शीघ्र मा० आवे से उनको भं० भगवन् कि क्या व. कहना गो० गौतम पा० माण भू. भूत नी. जीव
निरुद्धभवपञ्चे, णो पहीण संसारे, णो पहीण संसार वेयणिज्जे, नो वोज्छिण्ण संसारे, णो वोच्छिण्ण संसार वेयणिजे; णो निट्टियटे, नोनिट्टिय? कराणज्जे, पुणरवि इच्छत्तं हव्यमागच्छइ? हंता गोयमा! मडाईणं नियंठे जाव पुणरवि इग्छत्तं हब्वमागच्छइ । सेणं भंते : किं वत्तव्वंसिया? गोयमा ! पाणेतिवत्तव्यं सिया, भृतेति वत्तव्यंसिया
जीवेतिवत्तध्वंसिया, सत्तेति वत्तव्बंलिया, विन्नुयात्त वत्तव्वंसिया, वेदेति वत्तव्यं. मासुक भोजन करनेवाला परंतु भव व भव विस्तार का निलंघन नहीं करनेवाला, चतुर्गति गपन रूप सं. सार का क्षय नहीं करनेवाला, संसार में वेदनीय कर्म का क्षय नहीं करनेवाला, चतुर्गतिक गमनानुबंध व वेदनीय कर्म को नहीं तोडनेवाला, अपूर्ण प्रयोजनवाला और अपूर्ण प्रयोजन की करणीवाला निग्रंथ क्याई पुनः इस मनुष्यादि गति में आता है ? हां गौतम : मासुक भोजन करनेवाला परंतु भव व भव के 51
प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाराप्रसादजी *
भावार्थ