________________
काउद
७४४
११ अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
* षष्ठ शतकम्. * वे. वेदना आ० आहार म० महाश्रव स० प्रदेश सहित त० तमस्काय भ० भव्य सा० धान्य पु० पृथ्वी का कर्म अ अन्यतीर्थिक द० दश छ० छटे स० शतक में ॥१॥से० अथ णशंकादर्शी भं० भगवन् ज० जो म० महावेदना वाले से वह म० महानिर्जरा वाले जे. जो म० महानिर्जरा वाले से बैं
वेयण आहार महस्सवेय, सपएस तमुयए भविए ॥ साली पुढवी कम्म, अण्णउत्थि दस छट्ठगंमिसए ॥ १ ॥ सेणूणं भंते ! जे महावेयणे से महानिजरे, जे महानिजरे से महावेयणे, महावेयणस्सय अप्पवेयणस्सय से सेए जे पसत्थनिजराए ? ।
छ8 शतक में दश उद्देशे कहे हैं. १ पहिले उद्देशे में महावेदना महा निर्जरा का अधिकार, २ दूसरे के उद्देशे में आहार का अधिकार, ३ तीसरे उद्देशे में महाआश्रव का अधिकार, ४ चौथे उद्देशे में जीव
सपदेशी है या अप्रदेशी है इस के प्रश्नोत्तर, ५ पांचवे में तमस्काय का अधिकार ६ छटे में नरक में उत्पन्न होनेयोग्य का अधिकार. ७ सातवे में धान्य का विचार. ८ आठवे में रत्नप्रभादि पृथ्वी का 3 अधिकार ९ नववे में कर्मबन्ध का अधिकार व १० दशवे में अन्यतीर्थियों का अधिकार. इस तरह छठे शतक में दश उद्देशे कहे हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जो महा वेदनावाला होता है वह क्या महा निर्जरावाला होता है ? और जो महानिर्जरावाला होता है वह क्या महा वेदनाकाला होता है ? महा
प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *