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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
काल ५० कहा स० श्रमण आ० आयुष्मन् से० वैसे ही मं भगवन् पं० पांचवा स० शतक का प प्रथम उ० उद्देशा सं०. संपूर्ण ॥ ५ ॥ १ ॥
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रा० राजगृह जा० यावत् ए० ऐसा व० बोले अ० है मं० भगवन् ई० अल्प पु० सस्नेह वा० वायु प० पथ्य वायु मं० मंदवायु म० महावायु वा० चलता है ० हां अ० है || १ || अ० है त्थि उस्सप्पिणी, अवट्ठिएणं तत्थकाले पण्णत्ते समणाउसो ! सेवं भंते भंतेति ॥ पंचमसयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ १ ॥ ·
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राग गरे जाव एवं बयासी-अत्थिणं भंते ! ईसिं पुरेवाया, पत्थावाया, मंदावाया महावाया वायंति ? हंता अस्थि ॥ १ ॥ अस्थि भंते ! पुरिच्छिमेणं ईसिं पुरेवाया आलापक कहना. यावत् पुष्करार्ध द्वीप में पूर्व पश्चिम विभाग में अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कुछ नहीं है: परंतु अवस्थित काल रहा हुवा है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह पांचवा शतकका पहिला उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ५ ॥ १ ॥
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प्रथम उद्देशे में दिशि में दिवसादिक के विभाग कहे. अब इस में वायु के भेद कहते हैं. राजगृही { नगरी में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी ऐसा पूछने लगे कि अहो भगवन् ! अल्प स्नेह सहित वायु, वनस्पत्यादिकको पथ्यकारी वायु, मंद वायु व महा वायु
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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