________________
सत्र
८०५
इंदियोवउत्ता जहा असण्णी, संखेजा मणजोगी, एवं जाव अणागारोवउत्ता ३९, अणंतरोववण्णगा सिय अत्थि सिय णत्थि जइ अत्थि जहा असण्णी संखेज्जा परंपरोक्वण्णगा एवं जहा अणंतरोववण्णमा तहा अणंतरोवगाढा. अणंतराहारगा, अणंतर पजत्तगा चरिमा, परंपरोवगाढा, जाव अचरिमा, जहा परंपरोववण्णगा ॥ ६ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेसु असंखेज वित्थडेसु णरएसु एगसमएणं केवइया णेरइया उववजंति, जाव केवइया अणागारोवउत्ता उववजंति ?.
गोयमा ! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेस असंखेज । भावार्थ | मन योगी ऐने ही अनाकारोपयोग पर्यंत जानना अंतर उत्पन्न क्वचित् हैं काचित् नहीं हैं यदि है तो
जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात हैं, संख्यात परंपरा से उत्पन्न हुवे हैं. ऐसे ही अनंतरावगाढ, अन- .. तराहारी, अनंतर पर्याप्त, चरिम, परंपरावगाढ, यावत् अचरिम का जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! इस
ररूपमा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से असंख्यात योजनवाले नरकावास में एक समय में कितने *नारकी उत्पन्न होते हैं यावत् कितने अनाकारोपयोगाले उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! इस रत्नप्रभा
पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से असंख्यात योजन के विस्तारसले नरकावास में एक समय में जयन्य ।
48 पंवमान वाह १ण्णत्ति (भग ती) मूत्र -888
480-तेरहवा शतक का पहिला उद्दशा 48