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ऋषिजी "
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उववजंति ।। संघयणा छ ॥ सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुत्तं, उक्कोसेणं पंचधणुहसयाइं ॥ एवं संसं जहा सणिपंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं जाक भवादसोत्ति णवरं चत्तारि णाणा तिणि अण्णाणा भयणाए छ समुग्धाया केवलिवज्जा ठिई अणुबंधोय जहण्णेणं मासपुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी सेसं तंचव ॥ कालादेसेणं जहष्णेणं दसवास सहस्साई मास पुहुत्तमब्भहियाई, उकोसेणं-चतारि सागरोषमाइं चउहिं पुब्बकोडीहिं अब्भहियाइं, एवइयं जाव करेजा
॥ ४५ ॥ सोचेव जहण्ण कालटिईएसु उववण्णो एवचेव वत्तव्वया णवरं कालादेअहो गौतम ! जयन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात मनुष्य उत्पन्न होते हैं. संघयन छ शरीर की अबगाहना जघन्य प्रत्येक अंगूल उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य. शेष सब संनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच का भवादेश पर्यंत कहना. परंतु इस में विशेषता यह है कि चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना, केवली समुद्घात छोडकर छ समुद्घात, स्थिति अनुबंध जघन्य प्रत्येक मास उत्कृष्ट पूर्व क्रोड कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष
और प्रत्येक मास अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम और चार पूर्व क्रोड आधिक. इतना यावत् करे ॥ ५५ ॥ 17वही जघन्य स्थिति से उत्पन्न हुवा वही वक्तव्यता कहना. कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष और प्रत्येक
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री
दादा