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शब्दार्थ यहां से वह का० कालोदायी में बोधपामा स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ५० वंदना कर ।
इन नमस्कारकर ए. ऐसा व० बोला इ० इच्छता हूं भं भगवन् तु. तुमारी अं० पास ध० धर्म नि०yo सुनने को एक ऐसे ज० जैसे खं० स्कन्दक त० तैसे प. प्रवजित हवा ए. अग्यारह अं०अंग जा. यावत् वि. विचरता है ॥ ९॥ पूर्ववत् ॥१०॥ ११॥ त तब से वह का० कालोदायी अ० अनगार अ. ___ एत्थणं से कालोदाई संबुद्धे, समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ नमसइत्ता
एवं वयासी इच्छामिणं भंते ! तुझं अतियं धम्म निसामेत्तए एवं जहा खंदए तहेव
पव्वइए तहेब एक्कारस अंगाणि जाव विहरइ, ॥९॥तएणं समणेभगवं महावीरे अण्णयाक__याइं रायागहाओणयराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिस्खमइ २ त्ता, बहिया जणवय
विहार विहरइ ॥ १० ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामनगरे गुणसिलए नामं भावार्थ होते हैं अर्थात् अरूपी जीव ही पापकर्म के फल भोगता है ॥ ८ ॥ इतना सुनकर कालोदायी प्रति-a
बोध पाये. और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसे कहने लगे कि अहो भगवन् !
मैं आपकी पास धर्म श्रवण करने को इच्छता हूं. वगैरह जैसे स्कंदक के अध्ययन में कहा वैसे ही यहां 60 जानना. यावत् कालोदायी प्रवजित हुवे और अग्यारह अंग का अध्ययन करके विचरने लगे ॥ ९॥
फीर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी एकदा उस गुणशील नामक उद्यान में से नीकलकर देशान्तर में विचरने लगे ॥ १० ॥ उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर में गुणशील नामक उद्यान था. उस में
(भगवती) मूत्र 8 विवाह पण्णत्ति
सातवा शतकका दशत्रा उद्देशा है
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