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अष्टादशशतकम्.. पढमा विसाहमायं, दिएय पाणाय असुरेय | गुल केवलि अणगारे, मविए तह सोमिलद्वारसमे ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जार एवं वयासी जीवेणं भंते ! जीवभावेणं किं पढमे अपढमे ? गोयमा ! णो पढमे अपढमे ॥ एवं णेरइए
* अकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी
भावार्थ
49 अनवाका-यालयमचारी मुनि श्री अमेलक ऋषिनी 800
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__ सतर हरे शतक के अंत में अधिकार देवता का सा आहार कहा. अब अठारहवे शतक के प्रारंभ में जीवों की उत्पत्ति का कथन करते हैं. इस शतक में दश उद्दशे कहे हैं. जीवादिक अर्थ में प्रथमत्वादि विचारणारूप पहिला उद्देशा. २ विशाखा नगरी ३ माकंदीय पुत्र का ४ प्राणातिपातादि विषयका ५ अरवक्तव्यता ६ गुलादि अर्थविशेष ७ केल्यादि विषयका ८ अनगार विपय ९ भव्य द्रव्य नारकादि मस्यामार्य और सोमिक नमन का ये दश उश अठारह शतक में कहे. उस काल उस स में श्री श्री भगवन पहावीर स्वामी को चंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पुछने लगे कि अहो भगवन् !
जीव जयभान से प्रय है या आपमहे ? अतिकका जोब प्रमता धर्म पहित है ? पहिले जीवपना नहीं था पीछे हुया है अथवः अदि में है ? अहो मौतम ! जीव जीवभाव से प्रथम नहीं है अर्थात् जीवपना नया प्राप्त नहीं होता है परंतु अनादि से है. जैसे जीवपना अप्रथम है वैसे ही नरक से लेकर वैमानिक पर्यंत