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एस ए महालयंसि लोगस्स सासयं भावं, संसारस्स अणादिभावं जीवरसय णिच्चभावं, कम्म बहुत्तं जम्मण मरण बाहुलंच पडुच्च णत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्तेवि पसे जत्थ अयंजी ण जाएवा ण मएवावि से तेणट्टेणं तंचेत्र जाव णं मएवावि॥ २ ॥ कणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! जहा पढमसए पंचमोद्देसए तहेत्र आवासा ठान्या जाव अणुत्तरत्रिमाणेत्ति जात्र अपराजिए सव्वट्टसिद्धे ॥ ३ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावासस्यसहस्सेसु एगमेगंसिरियावासंसि पुढवीका इयत्ताए जाव वणरसइ काइयत्ताए णरगत्ताए णेरभावार्थ होवे. क्योंकी महालोक शाश्वत अनादि, नित्य है वैसे ही संसारी जीव भी अनादि से कर्म की बाहुल्यता से जन्म मरण कर रहे हैं. अहो गौतम ! इसी कारन से ऐसा कहा गया है कि इतना बडा लोक में एक परमाणु जितना भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहां जीवने जन्म मरण ने किया होवे ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वियों कितनी कही ? अहो गौतम ! जैसे प्रथम शतक के पांचवे उद्देरों में आवास तक कहा वैसे सब अनुत्तर विमान में अपराजित व सर्वार्थसिद्ध तक कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! यह जीव रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से एक २ नरकावास में पृथ्वीकायापने यावत् वनस्पतिकाया
सूत्र
++ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
<१० बारहवा शतक का सातवा उदेशा 430
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