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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
देवाणं वत्तव्यया तहा माहिंदग देवाणंवि भाणियन्वा, णवरं माहिंदग देवाणं द्विति सातिरेगा भाणियन्वा सव्वेव ॥ एवं बंभलोग देवाणवि वत्तन्वया, णवरं बंभलोग ट्रिति संवेहंच जाणज्जा, एवं जाव महस्सारो णवरं ठितिं संवेहंच जाणेजा ॥लंतगादीणं जहण्णकालदिईयस्स तिरिक्खजोणियस्स तिसुवि गमएसु छप्पिलेस्साओ कायन्चाओ, संघयणाई बमलोगलंतएसु पंचआदिल्लगाणि, महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि, तिरिक्खजो"णियाणवि, मणुस्साणवि सेसं तंचेव ॥११॥ आणयदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति, उत्पन्न होने के नव गमा कहना परंतु स्थिति व संबंध सनत्कुमार जैसे कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! माहेन्द्र देव में कहां से उत्पन्न होते हैं ?. अहो गौतम ! सनत्कुमार देवं की वक्तव्यता कही वैसे ही माहेन्द्र देव की वक्तव्यता कहना. परंतु माहेन्द्र की स्थिति साधिक कहना. ऐसे ही ब्रह्मलोक का कहना. परंतु ब्रह्मलोक की स्थिति व संबंध कहना. ऐसे ही सहस्रार पर्यंत कहना परंतु स्थिति व संबंध भिन्न कहना. लंतकादि में जघन्य स्थितिवाले तिर्यंच के तीनों गमा में छ लेश्याओं कहना. ब्रह्मलोक व लंतक में पहिले पांच संघयन, महाशुक्र व सहसार में चार संघयन तिर्यंच व मनुष्यों ऐसे दोनो को जानना.
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ