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शब्दार्थ| 4 }विचरता है ॥ ३३ ॥
सूत्र
भावार्थ
सबसे
त ० तब से वे सा० सामानिक दे० देव च० चमर अ० असुरेंद्र को ए० ऐसे बु० बोलाते हुवे इ० हृष्ट तु० तुष्ट जा० यावत् ह आनंद पाने क० करके तले प० जोडकर द० दशनल सि० शिर्ष से आ० आवर्तन म० मस्तक से अं० अंजलि क० करके ज० जय वि० विजय से ब० बधाकर {ए ऐसे व० बोले एवं यह दे० देवानुप्रिय स० शक्र दे० देवेन्द्र जा० यावत् वि० विचरता है ।। २४ ॥ ई त० तब च० चमर अ० असुरेंद्र अ० असुर राजा से उन सा० सामानिक दे० देवों की अं० पास ए० एवं संपेहेइ २ ता सामाणिय परिसोत्रवण्णए देवे सदावेइ २ न्ता एवं वयासी केसणं एस देवाणुपिया ! अप्पत्थिय पत्थए जाव भुंजमाणे विहरइ ॥ २३ ॥ तरणंसे सामाणिय परिसोत्रवण्णगा देवा चमरणं असुरिंदेणं असुररण्णो एवं वुत्तासमाणा हट्ठतुट्ठ जाव हयहियया करयल परिग्गहिये दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिंकहु जएणं विजएणं बद्धाति एवं वयासी एसणं देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया जाव विहरइ ॥ २४॥ तएण से चमरे असुरिंदें असुरराया तेसिं सामाणिय परिसोत्रवण्णगाणं देवाणं अंतिए { यह कौन है ? ॥ २३ ॥ जब चमरेन्द्र ने सामानिक परिषदा के देवों को ऐसा कहा तब वे बहुत हट तुष्ट हुने और हस्त द्वय जोडकर मस्तकों से आवर्तना देकर जय विजय शब्द से बधाये और कहा. भो देवानुप्रिय ! यह शक्रेन्द्र ऐसा भोग भोगवता हुवा बिबरता है || २४| तब चमरेन्द्र जनः सीमोनिक
44- तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा +
पंचमांग विवाह दण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
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