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शब्दार्थ
2880पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती)
जा. यावत् प० प्रतिरूप ॥ ७४ ॥ त० उस व वनखंड की ब. बहुत म० मध्य में म० बडा ए० एक व० वल्मीक आ० प्राप्त हुवा त०. उस व. बल्मीक को व. चार व. शरीर अ० नीकले ति तीछा सु० विस्तीर्ण अ० नीचे १० सर्प का अ० अर्धा रू. आकार से १० सर्प के सं० संठान से सं० संस्थित पा० प्रासादिक जा. यावत् प० प्रतिरूप ॥ ७९ ॥ त० तब ते. वे व० वणिक ह. हृष्ट तुष्ट अ. अन्योन्य स. बोलाकर एक ऐसा व० बोले दे. देवासुप्रिय अ० अपन इ० इस अ. ग्राम रहित जा० णिकुरुंबभूयं पासादीयं जाव पडिरूवं ॥ ७४ ॥ तस्सणं वणखंडस्सणं बहुमज्झदे सभाए एत्थणं महेगं बम्मीयं आसादेति ॥ तस्सणं वम्मियस्स चत्तारि वपुओ अब्भुगयाओ अभिणिसडाओ तिरियं सुसंपग्गहियाओ अहे पण्णगडरूवाओ पण्णगड संठाणसंठियाओ पासादीयाओ जाव पडिरूवाओ ॥ ७५ ॥ तएणं से वणिया हट्ठ
तुट्टा अण्णमण्णं जाव सदावेति, सद्दावेतित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! गवत् निकुरुंब भूत, दर्शनीय यावत् प्रतिरूप था. ॥७४॥ उस वनखंड की मध्य में एक बडा बल्मीक उनोंने देखा. उस को चार शरीर थे अर्थात् उस पर मिट्टि के चार शिखर थे. उस अवयव रूप नीकले हुवे चार तीच्छि दिशा में विशेष प्रसरे हुवे, विस्तीर्ण, नीचे अर्ध सर्प के आकार से, देखने योग्य यावत् प्रा ॥ ७० ॥ अब वे वणिक संतुष्ट हुवे यावत् परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! ग्राम रहेत
859 पन्नरहवा शतक 828
भावार्थ