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शब्दार्थ * {सम्यक् अ० पालते स० श्रमण निः निग्रंथ फा० प्रायुक ए० एषनिक अ० अशन पा० पानी खा०
खादिम सा० स्वादिम व वस्त्र प० पात्र कं० कंबल पा० रजोहरण पी० आसन फ० पाट से० शैय्या सं० संथारा ओ० औषध भे० भेषज प० प्रतिलाभते अः यथा प० ग्रहण किये त० तप कर्म से आ आत्मा को भा० भावते वि० विचरते हैं ॥ १२ ॥ ते० उस काल ते० उस समय में पा० पार्श्वनाथ के शिष्य थे० स्थविर भ० भगवन्त जा० जातिसंपन्न कु· कुलसंपन्न व० बलसंपन्न रू० रूपसंपन्न वि० विनय संपन खाइम साइमेणं वत्थ पडिग्गह कंबल पायपुळणेणं, पीढफलग सेज्जा संथारएणं ओसहभेसजेणं पडिला भेमाणा अहापरिम्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ १२ ॥ तेणं कालेणं तेणंसमएणं पासावचिजा थेरा भगवंतो जाइ संपण्णा, कुल संपण्णा, बलसंपण्णा, रूवसंपण्णा, विणयसंपण्णा, जाणसंपण्णा होते थे. वे श्रावकों बहुत शीलवत, अनुव्रत, गुनव्रत, प्रत्याख्यान, पोषत्र उपवास वगैरह करते थे. चतुदेशी, अष्टमी, अमावास्या व पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पोषध सम्यक् प्रकार से करते थे. अशम, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, बाजोट, पटिया, शैय्या, संथारा, व औषधादि । श्रमण निद्र्य को मनिलाभते हुवे ( देते हुवे ) वैसे ही जैसा ग्रहण किया वैसा तप कर्म से आत्माको चिंतबते हुवे विचरते थे ॥ १२ ॥ उम काल उस समय में जाति संपन्न, कुल सम्पन्न, बल सम्पन्न, रूप सम्पन्नः ।
सूत्र
48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
भावार्थ |
4 दूसरा शतकका पांचवा उद्देशा
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