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शब्दार्थ 4 हार ५० रखे से वह कि० क्या भा० कहा भ० भगवन् आ० आगमबलिक स० श्रमण णि• निग्रंथ *। सत्र सुएणं, आणाए, धारणाए, जीएणं ॥ जहा २ से आगमे सुए आणा धारणा जीए
तहा २ ववहारं पट्टवेजा ॥ से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा निग्गंथा इस तरह समझाने पर अपना सब अतिचार कहे तो प्रायच्छित्त देवे. ऐसा प्रायश्चित्त सहर्ष ग्रहण करे तो अल्प काल में निर्वाण प्राप्त करे. अब श्रुत व्यवहार कहते हैं. अग्यारह अंग व नव पूर्व का जिनको ज्ञान होवे वे श्रुत व्यवहारी कहाते हैं. वे आलोचना करनेवाले का अभिप्राय जानने के लिये उस के मुख से तीन वार दोष कहने का कहे. यदि तीनों वार एक सरिखा प्रकाश करे तो उसे शुद्ध समझ परंतु इस में भिन्नता मालूम पडे तो असत्य समझ कर उस को पहिले मृषावाद का प्रायश्चित्त देना फीर भालोचना का प्रायश्चित्त कहना. ३ आज्ञा व्यवहार. सूत्रार्थ के सेवन से महा गीतार्थ बने हुवे दो आचार्य जंघाबल की क्षीणता से विहार कर सके नहीं और अलग २ देशान्तर में रहे हुवे होवे, परस्पर एक दूसरे को मील सके नहीं. उस समय में उन में से कोई एक प्रायश्चित्त लेने को वांच्छे. और गीतार्थ शिष्य न होवे तो धारणा कुशल अगीतार्थ को अथवा शिष्य को सिद्धांत की भाषा से गूढार्थ अतिचार आसेवन का पद कहकर भेजे. वह आचार्य भी उस की पास से अपराध सुन करके द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव वैसे ही संहनन, धृति, बलादिक का विचार कर स्वयं वहां जावे अथवा किसी गीतार्थ शिष्य को
अमोलक ऋषीजी मुनि श्री
भावार्थ
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *