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शब्दार्थ १ योजन क्रोड जो० योजन क्रोडा क्रोड सं० संख्यात अ० असंख्यात जो० योजन सहस्र में लो० लो-।
कान्त में ए० एक प्रदेशात्मक से० श्रेणीको मो० अवगाहकर अ० असंख्यात पु० पृथ्वी कायिक बा• वास स० लक्ष अ० अन्यतर पु. पृथ्वी काया के वा० वास में पु० पृथ्वी कायापने उ० उत्पन्न होवे त० उस ८२०
बालग्गपुहत्तवा, एवं लिक्ख,जयं, जव, अंगुल, जाव जोयणकोडिंवा जोयण कोडा भी कोडिंवा, संखेजेसुवा असंखेजेसुवा, जोयणसहस्सेसु लोगतेवा एगपदेसियं सेढिं मोत्तूण असंखजेसु पुढविकाइया वास सयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढवि काइयावासंसि पढविकाइयत्ताए उववजेत्ता तओ पच्छा आहारेजवा परिणामेजवा सरीरंवा बंधेजा, जहा पुरच्छिमेणं मंदरस्स पव्वयस्स आलावओ भाणओ, एवं दाहिणणं
पञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं उड्डे अहे जहा पुढविकाइया तहा एगिदियाणं सव्यसि एक्के. भावार्थ यव, अंगूल यावत् क्रोडाक्रोड योजन, संख्यात, असंख्यात योजन सहस्र व लोकान्त तक जाकर अंगुल के
असंख्यातवे भाग नितने क्षत्र में एक प्रदेशात्मक श्रेणी को अवगाह करके पृथ्वीकाय के असंख्यात सहस्र वास में से किसी वास में उत्पन्न हए पीछे आहार करते हैं, खलरसपने परिणमाते हैं व शरोर बांधते हैं. है यद्यपि असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहन स्वभावबाला जीव है तथापि एक प्रदेश की श्रेणीवर्ती असंख्यात प्रदेश 6 की अवगाहना से भी जाने का स्वभाव होने से एक प्रदेश श्रेणी अवगाह कर जाने का कहा,
१५ अनुवाद क ल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 8
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *