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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवतीं ) सूत्र
से० वह मं० भगवन् किं० क्या इ० यहां रहेहुवे पो० पुद्गल १० ग्रहण कर वि० विकुर्वणाकरे त० तहां ( रहेहुवे पो० पुद्गल प० ग्रहणकर वि० त्रिकुणाकरे अ० अन्यत्र रहेहुवे पो० पुगल प० ग्रहणकर वि० विकुर्वणाकरे गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ म योग्य || ३ || दे० देव मं० भगवन् म० महर्द्धिक बाहिरए पुग्गले परियाइत्ता पभू ? हंता पभू । णं भंते! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ अण्णत्थगए पोग्गले परिया इत्ता विउव्वइ ? गोयमा ! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता, विउव्वाइ, एवं एएणं गमेणं एगवण्णं, एगरूवं, जाव अणेगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो ॥ ३ ॥ भाग देव बाहिर के पुगलों ग्रहण कर के वैक्रेय बनाने को समर्थ है ? हां गौतम ! देव वाहिर के पुहलों ग्रहण कर के वैक्रेय करने को समर्थ है. अहो भगवन् ! क्या वह यहां मनुष्य क्षेत्र गत पुद्गलों को ग्रहण कर वैक्रेय करे, अथवा वह रहे हुवे पुगलों को ग्रहण कर वैक्रय करे, अथवा { अन्यत्र के पुद्गल ग्रहण करे वैक्रेय करे ? अहो गौतम ! देवलोक में रहेहुवे पुद्गलों को ग्रहण कर वैक्रेय बनाता है परंतु मनुष्य क्षेत्र अथवा अन्यस्थान के पुद्गल ग्रहण कर वैक्रेय नहीं बनाता है. (इस प्रकार से एकवर्ण, एक रूप व अनेक वर्ण अनेक रूप ऐसे चार भांगे जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन्
*++ छठ्ठा शतकका नववा उद्देशा
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