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१.१ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमान श्री अमोलक अपिजी
डल संठाणपरिणयावि, व-तंस-चउरंस-आयत संठाण परिणयावि ॥ जेपज्जत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिदिय पओग परिणया एवं चेव जहाणुपुब्बीए णेयव्वं, जाव जे पज्जत्तासम्बट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय बेमाणिय. देव पंचिंदिय पओग परिणया तेवण्णओ, कालवण्ण परिणयावि जाव आयतसंठाण परिणयावि ॥ ८ ॥ जे अपज्जत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिदिय ओरालिय तेयाकम्मा सरीर पओग परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणयावि, जाव आयतसंठाण परिणयावि, जे पजत्ता सुहुम
पुढविकाइय एगिदिय ओरालिय तेयाकम्मा सरीर पओग परिणया. एवं चेव ॥ जैसे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक एकेन्द्रिय का कथन किया वैसे ही पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक यावत् अनुक्रम से सर्वार्थ सिद्ध तक कहना. पर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वर्ण से श्याम परिणत यावत् संस्थानसे लम्बगोल परिणत है. ॥ ८ ॥ अब उदारिक शरीर आश्रित वर्णादिक का कथन करनेका सातवा दंडक कहते हैं. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय उदारिक तेजस कार्माण शरीर प्रयोग परिणत हैं वे वर्णसे श्यामवर्ण यावत् संस्थानसे लम्बगोल, संस्थान वाले हैं. ऐसे ही पर्याप्त सूक्ष्म पुथ्वी कायिक एकेन्द्रिय उदारिक तेजस व कार्माण शरीर प्रयोग
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ