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शब्दार्थ | सातवा उ० आकाशान्तर ज० जैसे त० तनुशत ए० ऐसे ग गुरुलघु ग० घनवात घ० घनोदार्थ पु० पृथ्वी दी० द्वीप स० सागर वा० क्षेत्र || ४ || ने० नारकी भं भगवन् किं० क्या ग० गुरु जा० यावत् अ० अगुरुलनु गो० गौतम नो० नहीं गुरु नो नहीं लघु गुरु गुरुलघु अ० अगुरुलघु से० वह के० घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी, उवासंतराई सब्वाई जहा सत्तमे उवासं तरे । जहा तणुवाए एवं गरुयलहुए घणवाय वणउदहि, पुढवी, दीवाय, सागरा, वासा, || ४ || नेरइयाणं भंते! किं गरुया जात्र अगरुलहुया ? गोयमा ! नो गुरुया, नोलहुया, गुरुयलहुयावि अगरुयलहुयावि । सेकेणट्टेणं ? गोयमा ! वैउन्विय आकाशान्तर जैसे कहना. अर्थात् जैसे सातवा आकाशान्तर गुरु, लघु, व गुरुलघु नहीं है परंतु अगुरुलघु {हैं वैसेही इस का जानना जैसे तनुवात का कहा वैमेही बनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर व भरतादि क्षेत्र का जानना अर्थात् जैसे तनुवात गुरुलघु है वैसे ही उक्त सब पदार्थों गुरुलघु हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! नारकी क्या गुरु, लघु, गुरुलघु या अगुरुलघु हैं ? अहो गौतम ! गुरु भी नहीं हैं, लघु भी नहीं हैं, परंतु गुरुलघु व अगुरुलघु हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से नारकी गुरु व लघु नहीं हैं परंतु गुरुलघु व अगुरुलघु हैं ? अदो गौतम ! बँक्रेय व तेजस शरीर की अपेक्षा से नारकी गुरुलघु हैं परंतु
सूत्र
भावार्थ
४ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र
0808 हिरा शतक का वा उदेशा
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