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शब्दार्थ है कैसे गो० गौतम वे वैक्रेय ते० तेजस प० प्रत्यय नो० नहीं गुरु नो० नहीं लघु ग० गुरुलघु नो० नहीं
अ० अगुरुलघु जी जीव क० कर्म प० प्रत्ययिक नोनहीं गुरु नो नहीं लघु नो नहीं गु० गुरुलघु अ० अगुरुलय से वह ते० इसलिये जा. यावत् वे वैमानिक न० विशेष ना. नाना प्रकार जा० जानना
दक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
तेयाइं पडुच्च नागरुया, नोलहुया, गरुयलहुया, नो अगुरुयलहुया । जीवंच कम्मंच पडुच्च नो गुरुया नो लहुया, नो गुरुयलहुया अगुरुयलहुया । सेतेण?णं, एवं जाव वेमाणिया । नवरं णाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं ॥ ५ ॥ धम्मत्थिकाए जाव जीव
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ
गुरु, लघु व अगुरुलघु नहीं हैं. और जीव व कर्म की ओक्षा से गुरु, लघु, व गुरुला नहीं है परंतु अगुरु लघु हैं. इससे नारकी गुरुलघु व अगुरुलघु हैं. नारकी जैसे शेष सब दंडक के जीवों का जानना. मात्र शरीर में भिन्नता रहती है अर्थात् जिनको जितने शरीर होवे उनको उतने शरीर की अपेक्षा ग्रहण, करनी असुर कुमारादिक को नारकी जैसे, पृथिव्यादिक में उदारिक तेजस व कार्माण ऐसे तीन शरीर है इसलिये यहांपर उदारिक व तेजसकी अपेक्षा ग्रहण करनी वायुकायमें वैक्रेय उदारिक व तेजसकी अपेक्षा ग्रहण करनी. ऐसे ही तिर्यंच पंचेन्द्रिय को जानना. मनुष्य को उदारिक वैक्रेय अहारक व तेजस की अपेक्षा से लेना ॥ ५॥ धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति काय व जीवास्ति काय में मात्र जैथापद
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